दोहा :
* हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान।
बहु बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान॥120 क॥
भावार्थ:-तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपा निधान शिवजी मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले- ॥120 (क)॥
सोरठा :
* सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥120 ख॥
भावार्थ:-हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़जी ने सुना था॥120 (ख)॥
* सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरति परम सुंदर अनघ॥120 ग॥
भावार्थ:-वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम श्री रामचन्द्रजी के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥120(ग)॥
* हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120 घ॥
भावार्थ:-श्री हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥120 (घ)॥
चौपाई :
* सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥1॥
भावार्थ:-हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने श्री हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण 'बस यही है' ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)॥1॥
* राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥2॥
भावार्थ:-हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से श्री रामचन्द्रजी की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं॥2॥
* तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥3॥
भावार्थ:-और जैसा कुछ मेरी समझ में आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं॥3॥
चौपाई :
* करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥4॥
भावार्थ:-और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं॥4॥